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Friday 11 November 2016

श्री रामाधार मिश्र(नानाजी) कहते थे



आज मेरे नानाजी का देहान्त हो गया. उम्र तो इतनी अधिक ना थी पर शायद समय आ गया था. मैंने आज से पहले कभी अपने आपको इतना लाचार नहीं पाया कि चाहे कुछ भी कर लूँ पर अंतिम क्रिया के पहले नहीं पहुँच सकती. ऐसे समय में याद आता है कि घर से दूर और अकेले हैं, और कोई मदद भी नहीं कर सकते. एक इच्छा अंतिम दर्शन की. 

बस अब रह रहकर नानाजी के विचार मन में आ रहे हैं, और अपने होश संभालने से अब तक उनकी यादें सामने आ रही हैं. मेरे नानाजी पंडित श्री रामाधार मिश्र जी , बिजावर के एक विशिष्ट नागरिक थे, जिन्हें सिर्फ़ बिजावर में ही नहीं, छतरपुर जिले और बुंदेलखंड क्षेत्र में दूर दराज़ के हिस्सों में भी उनके नाम से पहचाना जाता था. और यह नाम उन्होंने अपनी कर्मठता, सेवा भाव, निष्ठा और ईमानदारी से कमाया था. लोग उन्हें सिर्फ़ एक विख्यात और ईमानदार वकील के रूप में नहीं जानते थे, बल्कि उनके सादा जीवन, दयाभाव और सही रास्ते पर चलने के साहस का आदर भी करते थे. उनके राजनैतिक या कार्यकाल संबंधी किस्से बताने के लिए मैं सही व्यक्ति नहीं हूँ. मैंने उन्हें सिर्फ़ उतना जाना है जितना देखा. अवश्य ही कई ऐसे ज्ञानी, सम्मानीय, और उनके करीबी लोग होंगे जो उनके सुनहरे कार्यकाल पर प्रकाश डालेंगे. मैं तो सिर्फ़ उनकी नातिन हूँ, और उन्हें नानाजी के रूप में ही जाना है. 

जब मैं छोटी थी, तब तो छुट्टियाँ सिर्फ़ नानाजी के घर पर बिताने के लिए होती थीं, माँ जाएँ या नहीं, मैं तो जाती थी. बिजावर का मतलब मेरे लिए बस मौसियों, मामा और भाई-बहनों से मिलना होता था. कभी कभी सुबह हम बच्चे नानाजी के बड़े से फ़ार्म हॉउस घूम आते थे. नानाजी और नानीजी ने वहाँ भी एक मंदिर बनवाया था, हनुमान जी का. मेरे बचपन की धुंधली यादों में उस मंदिर में बैठकर पूजा करना और वापस आते समय फूल लेकर आना अब भी है. नानाजी नियम और वचन के पक्के थे. कोई भी चीज़ उनके नियम नहीं बदल सकती थी. कितनी बार हम बच्चे उन नियमों को बदलने की कोशिश करते थे, पर नानाजी भी तो हमारे ही नानाजी थे. पूजा के बाद घर के सभी लोगों को चन्दन लगाना और आरती देना जब तक नहीं होता था, वे उठते नहीं थे. 

जब नानाजी कोर्ट जाते थे, तो हम बच्चे थोड़ी बहुत शैतानी भी करते थे और हमारी मौसियाँ भी खेलने के साथ हमें खाने के लिए कुछ न कुछ नया बनाकर देती रहती थीं. फ़िर शाम को नानाजी और नानीजी के साथ मंदिर जाना होता था. मंदिर जाने की याद मेरी सबसे सुखद याद है अब तक. हम नानाजी के कोर्ट के सामने से जाते थे. उतने लंबे रास्ते में हर २ कदम पर कोई न कोई उन्हें नमस्कार वकील साहब कहते हुए निकलता था. मेरे मानस पटल पर जानकी निवास मंदिर, मंशापूर्ण मंदिर , खेल का बड़ा मैदान, राम निवास मंदिर, और हनुमान जी की कुटी, और उसके पीछे का बरगद का पेड़ सब अभी तक अंकित हैं. मंदिर के पंडित भी नानाजी को जानते थे. रास्ते में नानाजी पाठ करते जाते थे और नानीजी हमारी धर्मग्रन्थों की जानकारी बढ़ाती जाती थीं, हमारे सवालों का जवाब देकर. नानाजी की बैठक में सैंकड़ों कानून की किताबें थीं. वे नए नियमों और पुराने केसेज़ को ध्यान से पढ़ते थे. बिजावर से जाने के बाद उन्होंने वे सभी किताबें एक लाईब्रेरी को निःशुल्क दान कर दी थीं. कहने लगे कि यहाँ रखने से अच्छा है कोई इनसे पढ़कर कुछ सीख ले. 

नानाजी घर आकर भी घर के हर सदस्य के बारे में पूछते थे, चाहे कोई भी हो. अपने व्यस्त दिन के बाद भी उन्हें अपने सभी बच्चों और उनके भी बच्चों का ध्यान रहता था. सबने भोजन किया या नहीं, किसी की तबियत ठीक नहीं हुई तो उसके पास बैठकर सहलाना नानाजी अक्सर किया करते थे. घर के छोटे बच्चों को तो वे अपने पास ही बैठाकर कहानियाँ सुनवाते थे या खुद सुनाया करते थे. एक धार्मिक पत्रिका है 'कल्याण', जिसका नाम शायद बुज़ुर्ग लोगों ने ही सुना होगा. नानाजी ने उसकी आजीवन सदस्यता लेकर रखी थी.  मेरा पढ़ने का शौक वहाँ  भी काम आया. और फ़िर नानीजी से उन बातों पर लंबे संवाद होते थे, लगता था कि नानाजी सुन नहीं रहे पर जैसे ही हम कुछ गलत बोलते थे वो तुरंत हमें सही करते थे. राजनैतिक मुद्दों पर नानाजी बहुत देर तक चिंतन किया करते थे. नानीजी से तो मैं अब भी बातें कर लेती हूँ, पर नानाजी से जब बातें करने लायक समझ आयी तब तक वे इन मुद्दों पर ज़्यादा नहीं बोलते थे. 

मुझे अच्छी तरह याद है कैसे नानाजी दिन में कोर्ट जाने से पहले भगवान् के पाठ और हवन पूरे करके जाते थे, चाहे भोजन करें या नहीं. उनके राम रक्षा स्तोत्र के श्लोक अब भी मेरे कानों में गूँजते हैं जो वे पूजा के कमरे में बैठकर बिना किसी रुकावट के करते थे. शायद नानाजी का धार्मिक होना घर के सभी लोगों में कुछ मूल्यों को पत्थर की तरह बिठा गया. मुझे याद है जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया था. उन दिनों हम जबलपुर में नहीं रहते थे. मेरे पिताजी की पोस्टिंग सागर में थी. और वहाँ से बिजावर बस ६ घंटों की दूरी पर था. तब घर पर लैंडलाइन फ़ोन नहीं था. मैं हर हफ़्ते बिजावर चिट्ठी लिखा करती थी. और नानाजी उसे भोजन के समय ज़ोर से पढ़वाते थे. फ़िर किसी मौसी या नानीजी से जल्दी उसका उत्तर लिखवाते थे. एक हफ़्ते के अंदर मुझे जवाबी चिट्ठी मिल जाती थी. 

ये बात तब की है जब मैं चिट्ठियाँ लिखने के लिए बहुत छोटी थी, शायद ४ या ५ साल की. नानाजी को माँ ने बताया कि मेरा एडमिशन सागर के सबसे अच्छे स्कूल सेंट जोसफ'स कॉन्वेंट में हो गया है. जब अगली छुट्टियों में मैं बिजावर गयी तो नानाजी ने माँ से कहा कि अब ये हिंदी कैसे सीखेगी. मेरी माँ भी उन्हीं की बेटी हैं. उन छुट्टियों में नानीजी ने मुझे हिंदी की गिनती सिखानी शुरू की. जब मैं वापस आयी तो मेरी माँ ने उसे जारी रखा और साथ ही बहुत कुछ सिखाया. अगली छुट्टियों में जब मैं बिजावर गयी तो नानाजी ने सोचा कि पूछा जाए कितना भूल गयी. जब मैंने उन्हें पूरी हिंदी की गिनती सुनाई तो वे खुश हो गए पर उससे भी अधिक ख़ुशी उन्हें तब हुई जब मैंने नानीजी के साथ बैठकर सभी मौसियों के सामने राम रक्षा स्तोत्र संस्कृत में पढ़ा. उसके बाद स्कूल में हमेशा मैंने अपनी हिंदी और संस्कृत सभी से अच्छी पायी. ये हमारे घर के वातावरण का असर कहा जा सकता है कि आज इतने वर्षों बाद भी हिंदी और संस्कृत मुझे नानाजी और नानीजी की उस बात को याद दिलाते हैं और ख़ुशी महसूस करवाते हैं कि मैं कहीं भी पढ़ी, कहीं भी रही, अब भी बिलकुल वही हूँ. नानाजी को मेरे अंग्रेजी वाद-विवाद की रिकॉर्डिंग्स सुनना भी पसंद था. उस पर वे अपने विचार ज़रूर बताते थे. 

मैं जैसे बड़ी होती गयी, मैंने अपने परिवार को और करीब से देखा. मौसियों की शादियाँ, नानाजी और नानीजी का रहन - सहन मैंने बहुत गहराई से जाना. इसीलिए मैंने अपनी  मौसियों में सहेलियाँ पायीं. जब मैं अकेली थी, तब शायद इसीलिए मामा के साथ इतने साल बिताने का समय मिला कि आज भी  उनकी भांजी से ज़्यादा परिवार के बच्चों में उनकी सबसे अच्छी दोस्त हूँ.  कभी कभी मुझे गर्व होता है और ख़ुद को भाग्यशाली महसूस करती हूँ कि मैं और मेरे माता-पिता बिजावर में नानाजी, नानीजी, मौसियों, मामा और अपने भाई-बहनों से सबसे अधिक जुड़े रहे. आज भी लगता है कि वो अपनापन मुझे सबसे बांधे रखता है सुख-दुःख में चाहे हमें मिले हुए कितने भी दिन हो गए हों. 

मैंने नानाजी को बाहरी अनजान लोगों पर दया दिखाते हुए भी बहुत देखा. जब समझ आयी तो मैंने पाया कि हमारे घर में कई बार गरीब लोग दूर दूर से आते थे. दरवाज़ा खोलने पर एक ही रट , "मिश्राजी  वकील साहब से मिलना है."  इन में से कई ऐसे होते थे जिनके पास कोर्ट केस की फीस देने के  पैसे नहीं होते थे, या जो बिजावर के दूसरे लालची वकीलों द्वारा पीड़ित थे. वे नानाजी के पास आते थे. नानाजी  मुफ़्त  में उनकी मदद करते थे क़ाबिल तो वे थे ही(उनकी डिग्री और काम से). मेरी माँ ने वकालत करने से पहले कई बार नानाजी के कागज़ संभाले थे. वे बताती हैं कि नानाजी ने हमें कहकर रखा था कि ऐसे लोगों को भोजन-पानी देना और ज़रूरत के लिए पैसे देना. कई बार  बाहर से आये लोगों को रात का आश्रय भी मिलता था. भूखों के लिए भोजन और भंडारे भी नानाजी अखंड रामायण के साथ करवाते थे. नानाजी कहते थे जितना कर सकते हैं करना चाहिए. उनके  इस नियम का पालन घर में हमेशा किया गया. 

आज यूँ तो आँसू मैंने भी बहाये पर फ़िर सोचा कि एक अच्छे जीवन को जीने की सीख देने वाले ऐसे ज्ञानी और दानी व्यक्ति को उनके जीवन के लिए याद रखा जाना चाहिए, (और वह भी हिंदी में) जिससे हम भी उनके आदर्शों का पालन करें. तभी सोचती हूँ आज देवउठनी एकादशी का दिन ही चुना ईश्वर ने उन्हें अपने साथ मुक्तिधाम ले जाने के लिए. वैसे तो बिजावर मेरे लिए सागर और जबलपुर से भी ज़्यादा करीब है, नानाजी भले ही गुवाहाटी या वड़ोदरा में रहे हों,और लोग अब भी घर और हमें देखकर कहेंगे कि ये मिश्राजी वकील साहब के घर से हैं, और इस पहचान पर मुझे गर्व है, पर मेरे मानस पटल पर उनकी जो छवि सबसे पहले उभरती है, वह है पूजा के कमरे में या शाम को बैठक में राम रक्षा स्तोत्र के १०८ पाठ  करने की सीधी छवि  और उनकी गूँजती हुई आवाज़,

 "राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
    सहस्त्रनाम तत्तुल्यम रामनाम वरानने ॥ "
                                  
                                        
                                       

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