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Saturday 30 April 2016

कोल बाज़ारी - The Story of Indian Marriages

Disclaimer- कृपया 'feminists' एवं 'chauvinists' इसमें अपने लिए कोई मसाला ढूँढ़ने की कोशिश ना करें. यहाँ किसी को गलत साबित नहीं किया जा रहा है, बस जो हमारे आस पास होता है, वही बताया जा रहा है.




तो बात शुरू हुई हमारे एक परिचित के परिवार में एक कन्या के विवाह से. ऐसा नहीं है कि यह हमने पहला विवाह देखा था अपने समाज में. परंतु यह आग में घी डालने वाला काम कर गया और हम सोचने पर मजबूर हो गए . तो साहब हुआ यूँ, जैसा कि हर आम आदमी (no offence to Kejriwal) के 'Marriage Process' में होता है. कन्या विवाह योग्य हुई तो माता- पिता को चिंता सताने लगती है. "अभी तो सही उम्र है, अब नहीं हुई तो अच्छे रिश्ते नहीं मिलेंगे", "अब सब तो हो गया, पढ़ लिया तुमने, नौकरी भी कर ली, दुनिया भी घूम ली, अब और क्या चाहिए, शादी कर लो". अगर आप सोच रहे हैं कि ये शब्द माता-पिता द्वारा कहे गए हैं, तो माफ़ कीजिये आप पूरी तरह सही नहीं हैं. 

भगवान लम्बी उम्र दें उन रिश्तेदारों को, उन परिचितों को जिन्हें अपने बच्चों से ज़्यादा चिंता ऐसी कन्याओं की होती है. कितने निष्कपट होते हैं ये. अगर आपको रिश्ते नहीं मिलेंगे, तो ये हर गली मोहल्ले के ऊट पटांग रिश्तों को आप तक लायेंगे , क्योंकि साहब आपकी कन्या की बड़ी चिंता है इन्हें. और यदि इस पर कन्या ने कह दिया "मुझे शादी नहीं करनी", "मैं अपने तरीके से रहना चाहती हूँ", "मुझे अभी अपने career के बारे में सोचना है", "मुझे खुद को समझना है अभी", तो कसम ख़ुदा की तूफ़ान  है. यही रिश्तेदार फ़िर शुभचिंतक बनकर सामने आयेंगे घावों पर नमक मलने को ,"लड़की हाथ से निकल गयी है आपकी", "लगता है पहले से लड़का ढूँढ रखा है", "जी बाहर जाकर ऐसा ही होता है", "अरे खुद को समझने, पढ़ने और कलाकारी के काम तो घर में बैठकर शादी के बाद भी कर सकती हो, कौन सा तुम्हें कहीं जाना है, अंत में घर तो सम्भालना ही है", "कुछ तो माँ- बाप के बारे में सोचो","क्या करोगी अकेले, कोई तो चाहिए"(जी हाँ हमें बचपन से समाज ही बताता है कि  नारी अबला होती है). यदि लड़का हो तो उसे सुनने मिलेगा,"अकेले कब तक रहोगे? घर में बीवी के आने से रौनक आ जाती है. खाना कब तक बनाओगे खुद ही". ये वही रिश्तेदार और पड़ोसी हैं जो आपकी नौकरी लगने से पहले घर आकर आपके माँ-बाप को दूसरे बच्चों की सफ़लता के बारे में Twitter से भी जल्दी बताते थे. 

तो जैसे तैसे कन्या के हाँ कहने पर, यही भले मानस रिश्ते लाते हैं . कुंडली मिलनी चाहिए साहब, और घर परिवार खानदान अच्छा होना चाहिए. जाति के बाहर तो चलेगा ही नहीं. और फिर शुरू होता है कभी ना खत्म होने वाला सिलसिला 'देखने दिखाने ' का. यहाँ तक तो सिर्फ़ कन्या की मुसीबत थी, अब तो लड़का भी फस गया(जो कि पहले ही मुश्किल से खुद को मनाकर लाया है कि शादी करनी पड़ेगी). जब लड़के वाले लड़की वालों से मिलने आते हैं, तो एक माहौल बनता है, उन्हें प्रभावित करने का, क्योंकि जनाब किसी साक्षात्कार में अपना प्रभाव दिखने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है यह. अगर लड़के वाले प्रसन्न हो गए, तो लेन  देन में कम समस्या आएगी. कन्या के स्कूल, कॉलेज, नौकरी की उपलब्धियाँ गिनकर बताई जाएँगी, और लड़के वाले तारीफ़ में दो-चार शब्द बोल देंगे, क्योंकि इससे किसी को आगे कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला, यह तो कन्या पक्ष के लोग अपने self-esteem को कायम करने के लिए कर रहे हैं. और वैसे भी कन्या चाहे कल्पना चावला ही क्यों ना हो, अगर दाल में तड़का ठीक से ना लगा पाई , तो क्या करेगी अंतरिक्ष में जाकर. 

पर लड़का, अरे साहब उसका भी S.S.B. इंटरव्यू होता है. "कितना कमा लेते हो", "कोई बुरी आदत तो नहीं है", "हमारी लड़की अपने तरीके से रहना चाहती है", "ससुराल में कितने दिन रहना पड़ेगा", "यूँ तो हमारी लड़की एकदम घरेलू और सुशील है पर थोड़ा कम पुराने ख़यालात की है, वैसे भी आज कल नया ज़माना है". अभी लड़का सोच ही रहा है कि माँ और बीवी के बीच कैसे रहेगा, कि एक और सवाल,"शादी के बाद नौकरी करवानी है लड़की से या नहीं". इस सवाल का जवाब लड़के की माँ देंगी,"ये  तो दोनों का फ़ैसला  होगा, अगर कोई दिक्कत नहीं हुई तो बिलकुल कर सकती है"(यकीन मानिए इस में रत्ती भर भी सच्चाई नहीं है).                                    
अब आता है मिलने मिलाने का समय. नहीं, अगर आप सोच रहे हैं कि अब लड़का और लड़की अकेले में कुछ सवाल  पूछ सकते हैं, तो आप गलत हैं, यहाँ परछाई की तरह साथ रहेंगी, लड़की की मौसी/चाची /मामी/बहन या कोई और. अब लड़का और लड़की पचास सवाल मन में रखकर एक घिसा हुआ सवाल पूछेंगे,"आपको कोई समस्या तो नहीं इस शादी से " और जवाब भी वही घिसा हुआ रहेगा ,"जी नहीं." अब किसको क्या पूछना है ये वैसे भी ज़रूरी नहीं है यहाँ. आख़िर  हम एक मोबाइल फ़ोन खरीदने के लिए दस दिनों तक पड़ताल कर सकते हैं, पर शादी तो एक छोटा सा फ़ैसला है, २ मिनट में हो जाना चाहिए. अगर एक बार और इस तरह मिलवा दिया गया, तो साहब हाँ तो है ही, बिना पूछे. पर अभी ड्रामा खत्म नहीं हुआ है, अभी तो बड़े परदे पर सिनेमा दिखाई जानी है.                            
                                                                          
जी हाँ, लेन देन एक ऐसी परंपरा है जो आज से सैंकड़ों साल पहले एक अच्छे प्रयोजन के लिए शुरू की गयी थी. नवविवाहितों को नया जीवन शुरू करने के लिए लड़की वाले कुछ उपहार देते थे. जी अब तो लड़के नौकरी के हिसाब से बिकते हैं. बोली लगायी जाती है.  आई. टी. वाला हो तो ५-६ लाख, सरकारी इंजीनियर हो तो १०-१५ लाख, डॉक्टर हो तो १५-२० लाख, और आई. ए. एस. वाले तो ५० लाख या करोड़ों में बिकते हैं. आख़िर माँ-बाप ने जितने पैसे खर्च किये हैं, वो वसूलने तो पड़ेंगे. लड़की वाले अपने लड़के की शादी में कर लेंगे. यही तो परंपरा है. उस पर दहेज़ का बाकी सामान और एक कार तो बनती ही है, हैसियत के हिसाब से. और फ़िर शादी तो धूम धाम से ही होनी चाहिए, क्योंकि ५० रिश्तेदारों के सामने इज़्ज़त जो रखनी है. और विदाई के समय उपहार तो होने ही चाहिए, बिलकुल लड़के को तराज़ू में तौलकर. यदि इतना हो सकता हो तो बात आगे बढे. 

अजी, इतना तो चलता ही है, आख़िर शादी-ब्याह का मामला है, सस्ते में थोड़ी होगा. एक ही बार तो होता है, क्योंकि यदि ना  भी निभी, तो लड़की वाले और लड़के वाले मजबूर होकर निभा ही लेंगे. लड़के और लड़की से कौन पूछेगा कि कैसे निभ रही है. अगर आप सोच रहे हैं, कि  यह सिर्फ़ arranged marriage का ढाँचा है, तो आप सरासर ग़लत हैं, love marriage तो और भी बड़ी समस्या है. क्योंकि यहाँ लड़का और लड़की पहले ५० तरह की समस्याओं और पूर्वाग्रहों से लड़कर सबको मनाएंगे, पर शादी के लिए यही सब दोहराया जायेगा. कुछ कमी ना रह जाये, लड़की वाले घबराकर करेंगे, और लड़के वाले झूठी इज़्ज़त के लिए. अगर कुछ कम रह गया तो रिश्तेदार क्या कहेंगे, कि इससे अच्छा तो कहीं और कर दी होती, कोई कमी थी क्या. वही रिश्तेदार जिन्हें अपने बच्चों से ज़्यादा दूसरों की कन्याओं और सुपुत्रों की चिंता होती है. 
                                         
ये सिलसिला यहाँ खत्म नहीं होता. "देखो कोई दिक्कत हो तो समझौता करके चलना, सब जगह करना पड़ता है", "विचार ना  भी मिलें, तो बना  लेना आपस में, घर विचारों से नहीं चलता है", "अपने आपको बदलना ज़रूरी है, सबको करना पड़ता है, यही तो शादी होती है". तो एक और शादी को इतने करीब से फिर से देखने के बाद और कई और करीबी लोगों की शादीशुदा ज़िन्दगी देखने के बाद हमारे मन में सिर्फ़ एक ही सवाल कौंधता है. लड़के हों या लड़कियाँ, हमने समाज में लकीर के फ़कीर बनना क्यों सिखाया है. विवाह- इस शब्द का अर्थ होता है, दो लोगों का आपसी रिश्ता, जो एक दूसरे से बँधकर चले. पर यही नहीं है, तो क्या इस समाज में विवाह ना  करना, विद्रोह की श्रेणी में आता है. समाज की हर समस्या का एक ही हल है लोगों की नज़र में- शादी. 

 यही तो स्कैम है जी, इसी की तो हमें जाँच करनी चाहिए. कौन करेगा जी इसकी जाँच (केजरीवाल जी? ). क्योंकि शादी से बड़ी कोल -बाज़ारी हमने तो ना देखी अभी तक. आपने देखी है क्या? क्या आपके दिमाग में वो गाना नहीं बजता,"काला  रे......"

Sunday 10 April 2016

गूँज



कुछ अलग ही रंग दिखे थे मुझे,
उस किताब के पन्नों की अठखेलियों में,
जैसे मासूम बचपन रूठ जाता है,
पर अलग ना हो पाए अस्तित्व से,
वो सुबह का कुहासा मानो एक रास्ता था,
मुझे उस अनजाने शहर में ले जाने का,
पर वो अनजाना  कहाँ  वो तो अपना ही था,
ज़िन्दगी जैसे  पहली बार हाथ थामकर चली हो,
जब फूलों का शाखों पर होना भी हो,
पर मौसम गुजरने पर शाखें खाली भी हों,
जैसे बारिश की वही बूँदें भिगा गईं हों,
जो मेरे होने का एहसास दिलाएँ मुझे,
जैसे बौछार में शीशम के पत्ते रोकते हों,
उन टपकती बूँदों के सैलाब को,
पर मैं चलती रही, वो टपकती रहीं,
और बियाबाँ में गीली मिट्टी और लकड़ी की खुशबू,
जैसे किसी कोने में मेरी छिपी हुई गहराइयाँ,
मुझे कभी दिखती नहीं पर महकती रहती हैं,
वो बर्फ़ का जमना और पिघलना,
जैसे मेरी कहानियाँ बर्फ़ में घुल गईं हों,
वो कहीं दूर क्षितिज था पर करीब लगा,
जैसे एक हाथ बढाकर मुझे मिल जायेगा,
रात की ख़ामोशी में दूर किसी का सुर,
जैसे मेरे मन के अनसुने राग हों,
और उस ठिठुरन में अपने होने का एहसास,
जाने कहाँ से मुझे खुद में समाते हुए,
वो वादियाँ , वो दरख़्त, वो काफ़िले,
वो  बस सुकून में अपने से लगे मुझे,
उस चिनार  के पेड़ का हवा से लड़ना,
वो गूँज अब भी सुनाई देती है मुझे,
कहीं से वो मुझ जैसे हैं सभी,
तिनकों और मौसमों को पिरोते हुए,
मैं हूँ और वो वादियाँ हैं,
                       दूर ही सही आदतों से बँधे हुए...