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Saturday 21 November 2015

प्रतिबिम्ब



सर्दियों का मौसम आख़िर आ ही गया. यूँ तो मुझे हमेशा से ही कड़ाके की ठण्ड का इंतज़ार रहा है, पर ये महीना तो जैसे मेरे ही लिए बना है। नवंबर के आखिरी दिन और दिसंबर की दस्तक जैसे मेरे मन को सुकून देने के लिए आते हैं। और रातें … उनसे तो हर मौसम में गहरा नाता होता है। मेरी सुबह तो रात को ही होती है। पर वो रात कुछ अलग थी। अलग इसलिए नहीं कि हर रात की तरह मन की हर परत झंझावातों से दूर अनगिनत दिशाओं में जाकर कुछ पल के लिए ही सही सुकून तलाश कर रही थी, बल्कि इसलिए क्योंकि मैं एक ऐसे सफ़र पर जा रही थी जिसका परिणाम जो भी होता, पर सफ़र बहुत अलग था। हमेशा से ज़्यादा लम्बा।

रात के दो बज रहे थे। धुंध के कारण फ़्लाईट तीन घंटे देरी से निकलने वाली थी। और मैं अकेली दिल्ली एयरपोर्ट पर बैठी कभी अपने साथ लाई हुई किताब को पढ़ रही थी तो कभी आस पास के इक्का दुक्का लोगों को ग़ौर से देख रही थी। सोच रही थी कि क्या ये सब भी मन के अथाह वेग को दबाकर बस यूँ ही मुखौटा लगाए हुए थे या किसी के पास इतना समय था कि वह अपने असली स्वरुप का सामना करता और ये देखता कि मिथ्या और दिखावे की पराकाष्ठा के तले उनका अस्तित्व घुट घुट कर मर रहा था। पर शायद मेरी तरह किसी को वहाँ ना तो इतनी फ़ुर्सत थी और न ही कोई ऐसा सोचता।

सभी अपने मोह के संसार को असली समझकर सुखी दिखाई दे रहे थे। मुझसे कुछ दूरी पर एक अधेड़ उम्र के सज्जन गर्म कपड़ों में कैद नींद के झोंकों से जूझ रहे थे। उनसे कुछ और दूरी पर एक नवविवाहित जोड़ा शायद अपनी ही दुनिया में खोया था। अलबत्ता इसमें मैं अपना दोष मान सकती थी कि मैं एक अलग ही दुनिया के विचारों को प्राणवायु दे रही थी, और यही कारण था कि हमेशा की तरह उस रात भी मुझे ख़ुद को याद दिलाना पड़ रहा था कि मैं इसी दुनिया में हूँ, अब भी। जब कहीं कोई तार सुलझता हुआ ना दिखा, तो कुछ देर के लिए आँखें बंद कर लीं।

अचानक ऐसा लगा जैसे किसी ने आवाज़ दी, मेरा नाम लेकर। एक अनजान शहर के अनजान कोने में अपना नाम सुनना अजीब लगा, पर अनसुना न कर सकी। देखा तो मेरे बगल वाली जगह पर एक बुज़ुर्ग महिला थीं। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने गर्म कपड़े नहीं पहने थे। चेहरे पर उम्र का असर तो था पर एक अलग सा तेज उनकी ओर आकर्षित कर रहा था।उन्हें अपनी तरफ देखते हुए देखकर शंका हुई कि वो कोई संदिग्ध व्यक्ति तो नहीं। यूँ भी किस्सों और अख़बारों में बहुत कुछ पढ़ रखा था। पर वे तो मुस्कुरा रही थीं। मैंने भी हल्के से मुस्कुराकर उनका अभिवादन किया। उनके हाथ में एक पेन और कागज़ था पर वे कुछ ढूँढ़ रही थीं।

"क्या मैं तुम्हारी किताब ले सकती हूँ कुछ देर के लिए ?", उन्होंने पूछा।


"जी मैं वैसे भी पढ़ चुकी हूँ, अगर आपको अच्छी लगे तो ", मैंने उनकी ओर किताब बढ़ाते हुए कहा।


" Paulo Coelho, तुम्हारी पीढ़ी के लोग आम तौर पर पढ़ते नहीं दिखते इनकी किताबें ", उन्होंने कहा और किताब को कागज़ के नीचे रखकर उस पर कुछ लिखा। फ़िर किताब मुझे लौटा दी।


"मैं खुद को आसानी से जोड़ लेती हूँ इनकी किताबों से, और मुझे लगता है और भी कई लोग"।


"अक्सर लोग किताबों में अनसुलझे सवालों के जवाब ढूँढ़ते हैं "।


"जी?!", मुझे उनका यह वाक्य डरा गया। एक पल के लिए ऐसा लगा जैसे वे मुझे जानती हों। अगले ही पल खुद को सँभालते हुए मैंने कहा , "शायद हाँ पर मुझे लगता है कि लोग अपने जैसे विचार रखने वालों को जानना चाहते हैं बस या फिर यह देखना चाहते हैं कि उनके विचार और किस दिशा में जा सकते हैं "।

"क्या तुम यह मानती हो कि लोग अपने विचार निष्कपट तरीके से रखते हैं? क्या तुम्हें नहीं लगता कि हर सच्चे विचार के पीछे भी कोई कारण, कोई लोभ, पहचान बनाने की इच्छा, प्रभाव छोड़ना, रिश्ते बनाना … और ना जाने कितने और पहलू छिपे होते हैं, जो शायद हम इसलिए नहीं देखते, क्योंकि कहीं ना कहीं हम भी ऐसा करते हैं?"

मैंने उन्हें ध्यान से देखा। कहने को तो उनकी बात एक कड़वा सच थी पर सच तो थी। पर मैं अपने अंदर उठे अंतर्विरोध को रोक न सकी और बोल पड़ी, "तो क्या आपको लगता है कि दुनिया में मासूमियत और सच्चाई नहीं है? क्या विश्वास नाम की चीज़ इस दुनिया को अलविदा कह चुकी है?"

"मैंने यह तो नहीं कहा कि अच्छाई और सच दुनिया में अब नहीं है। मैं तो सिर्फ़ यह कह रही हूँ कि कहीं ना कहीं हम सब इस का हिस्सा हैं"।

"दरअसल मैं यह मानती हूँ कि हम सब में अच्छाई और बुराई दोनों हैं। हम किसे ख़ुद पर हावी होने देते हैं वो हमें दूसरों से अलग करता है। अच्छे और बुरे दोनों ही तरह के कर्मों का फ़ल सभी को मिलता है। पर हम अविश्वास में तो नहीं जी सकते। वैसे ही इंसान अपने जीवन में इतना परेशान रहता है", मैंने जवाब में कहा।

"तुम यह भी कह रही हो कि जीवन में परेशानियाँ होती हैं और यह भी कि अविश्वास और संदेह में जीवन नहीं गुज़ारा जा सकता। तो क्या तुम यह दिल से कह रही हो?"

मैं चुप रही, उस पल मुझे लगा कि मैं शायद ख़ुद को ही गलत साबित कर रही थी।

वे आगे बोलीं ,"तुम्हारी चुप्पी से मैं यह मान सकती हूँ कि तुम्हें मेरी पहली बात पर विश्वास है। हम सच बोलते समय भी थोड़े से बेईमान होते हैं, इसका यह मतलब तो नहीं कि सच्चाई ख़त्म हो गई है। जैसा कि तुमने कहा अच्छाई और बुराई दोनों रहती हैं दुनिया में, और यह हम पर निर्भर करता है कि हम ख़ुद पर किसे हावी होने देते हैं। तो मतलब साफ़ है हम पवित्र भी हैं और मैले भी। और ये जो द्वंद्व हमारे मन में चलता है, इसका महत्व यही है कि हम सचेत रहें कि हम क्या चुन रहे हैं। कहीं हमारी किसी बात, हमारे किसी निर्णय से किसी का बुरा तो नहीं हो रहा।इसी अंतर्द्वंद्व के साथ अपने अच्छे और बुरे दोनों रूपों को मान लेना यही तो जीवन है। और जीवन को इसी जुनून के साथ जीना चाहिए। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो इन बातों पर सोचते हैं और जो सोचते हैं, वही भीड़ से अलग होते हैं, वही कुछ करना चाहते हैं। जो लोग आस पास की छोटी छोटी बातों के पीछे का मतलब भी समझते हैं, ऐसे लोग भीड़ में कभी नहीं मिलेंगे तुम्हें। वे गलत होते हुए नहीं देख सकते क्योंकि उन्हें पता है कि उसका परिणाम बुरा होगा। जब वे सही होते हैं तब वे कभी झुकते या टूटते नहीं हैं, पर जब गलत होते हैं तो झुककर न सिर्फ़ अपनी गलतियों को मानते हैं, बल्कि उन्हें सुधारने की, सज़ा भुगतने की, प्रायश्चित करने की हिम्मत भी रखते हैं।"

मैं प्रत्युत्तर में मुस्कुराई, "पर अगर ऐसे लोग इतने संवेदनशील होते हैं तो तकलीफ़ का एक बड़ा हिस्सा भी तो उन्हीं को मिलता है। हम अच्छाई का रास्ता चुनते हैं, कभी किसी का बुरा न होने देते हैं न करते हैं, पर जो बुरा हमारे साथ होता है, जिसके लिए हम कुछ नहीं कर पाते, क्या वह घुटन, वह तड़प, दिल में कहीं एक गाँठ बनकर जीना मुश्किल नहीं कर देती?"

"मुझे ख़ुशी हुई कि तुम अब पूरा सच बोल रही हो जैसा तुम्हें लगता है। हाँ तकलीफ़ का बड़ा हिस्सा फिर हमें मिलता है, लेकिन अब जो तुमने सबसे पहले मुझसे कहा था अच्छाई का रास्ता हम स्वयं चुनते हैं, और यही हमें सबसे अलग बनाता है, हम परिणाम नहीं देखते इसका, यही लड़ाई जो हमारे अंदर चलती है और हमें अपने निर्णय लेने की शक्ति देती है, यही वह है जो हमें हमारे रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करती है। और ऐसे ही लोग कभी अपने रास्ते से पीछे नहीं हटते। इसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए और जो ऐसा करते हैं वही तो बहादुर होते हैं। असली वीरता बाहर की लड़ाई जीतने में नहीं, मन के अंदर की लड़ाई जीतने में है। उसे समझने में है, और सच कहूँ तो ऐसा करने वाले विरले ही मिलते हैं। बहुत से तो बीच में ही सही रास्ता छोड़कर आसान वाला चुन लेते हैं। पर ये तो एक तपस्या है, जिसे परिणाम तक पहुँचाने के लिए त्याग, धैर्य, और साहस चाहिए..... "

"पर परिणाम न मिला तो? यदि कोई कारण ही न हो किसी बात के होने का? यदि अंत ही न समझ आए तो?"

"परिणाम न मिले ऐसा तो होता ही नहीं, और इस दुनिया में हर बात, हर चीज़ का कारण होता है। बिना वजह कुछ नहीं होता यहाँ। हमें सिर्फ धैर्य रखना होता है जब तक वो कारण पता चले। कभी न कभी कारण और अंत दोनों समझ में आ जाते हैं -- हर उस बात के लिए जो तुमसे कभी कहीं जुड़ी रही हो। तुम मानती हो ना कि हम सब में दोनों ही तरह के गुण होते हैं, और कर्मों का फ़ल सबको मिलता है। क्या रावण पूरी तरह बुरा था? उसके अच्छे गुणों के कारण वह इतना प्रभावशाली और बुद्धिमान था कि आज भी उसे विद्वानों में गिना जाता है , पर उसे उसके अहंकार और दुष्कर्मों का परिणाम अंततः मिला । और क्या श्रीराम पूरी तरह अच्छे थे? मर्यादापुरुषोत्तम और प्रतापी होने के बाद भी वे सीता पर अपने द्वारा किए गए अन्याय का फ़ल उनसे अलग होने के संताप में भुगतते रहे। क्या वे सुखी थे? पांडवों को भी अपने अन्यायों का परिणाम मिला पर सत्कर्मों का फ़ल भी मिला। क्या द्रौपदी को कौरवों का अपमान करने का फ़ल नहीं मिला और क्या कौरवों को अपनी असहिष्णुता की सज़ा नहीं मिली? विश्वास और समय सब देता है। लेकिन यह सोचकर कि बुरे लोगों को उनके कर्मों का फ़ल मिलता नहीं दिख रहा, तुम अपने सिद्धांतों पर अफ़सोस तो नहीं करोगी।"

मैं उनकी बातों से प्रभावित हुए बिना ना रह सकी।

"जी नहीं, मैं अफ़सोस नहीं करती। ना ही अपने सिद्धांतों पर, ना ही अपने निर्णयों पर। हर गलती से कुछ ना कुछ सीखा ही है मैंने।"

"बेटी यही तो जीवन का मूलमंत्र है। अपने रास्ते पर चलते जाओ, और किसी का बुरा ना करो। समय सबको उनका प्रतिबिम्ब दिखा ही देता है। मूर्खों और पाखण्डियों को देखकर हमें अपने रास्ते पर गर्व करना चाहिए कि हम उनसे कितने अलग हैं। और वैसे भी तुम मुझे हार मानने वालों में से लगती नहीं। अन्यथा इतनी सर्दी में अकेली आधी रात को यहाँ क्या कर रही होती। कुछ इतना ज़रूरी है जिसे तुम टालना नहीं चाहती। पर शायद कोई ऐसा सवाल तुम्हें परेशान कर रहा है जिसका जवाब तुम कभी किताब में तो कभी आस पास ढूँढ़ रही हो, क्योंकि जहाँ तुम जा रही हो, वहाँ तुम जाना नहीं चाहती।"

मैं स्तब्ध रह गई। वे मेरा मन कैसे पढ़ सकती हैं! मेरा चेहरा देखकर उन्होंने कहा,"अब तुम्हारे मन की बात तुमसे बिना पूछे कहने के लिए माफ़ी चाहती हूँ। पर चिंता मत करो, तुम गलत नहीं हो। और जहाँ तुम नहीं जाना चाहती, वहाँ जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।"

"वो कैसे?" मैं और कुछ न पूछ सकी। अंतर्यामी लग रहीं थीं वे मुझे।

वे मुस्कुराकर सामने डिस्प्ले बोर्ड की ओर देखकर बोलीं,"कुछ सवालों के जवाब तुम पहले से जानती हो, हमेशा से। उन्हें कहीं ढूँढ़ो मत। वो तुम्हारे अंदर ही हैं, इंतज़ार कर रहे हैं खोजे जाने का, उनसे भागो मत।"

वे उठकर चल दीं।

"पर आप हैं कौन?" मैंने पूछा।

"मेरे चलने का समय हो गया है। ऐसी ही रहना। बहुत अच्छा लगा तुमसे बात करके। जैसा कि मैंने कहा कुछ सवालों के जवाब तुम पहले से जानती हो।"

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'दिल्ली से जाने वाली सभी उड़ानें मौसम ख़राब होने की वजह से आज रद्द कर दी गई हैं । असुविधा के लिए खेद है।'

उद्घोषणा सुनकर मैंने आँखें खोलीं तो समझ में आया कि मेरी फ़्लाईट रद्द हो चुकी थी। मैं मुस्कुरा दी। मुझे उनकी बात याद आई। मैंने आस पास देखा तो वही गिने चुने लोग थे जो मेरी आँखें बंद होने से पहले थे। वे कहीं दिखाई ना दीं। इतनी जल्दी तो कोई गायब भी नहीं हो सकता था। मैंने समझने की कोशिश की कि मेरे साथ क्या हुआ था। थोड़ी देर तक होश में रहने के बाद मैंने सोचा कि यह बातचीत शायद मेरे अंतर्मन में थी। अचंभित महसूस करते हुए मैंने अपनी किताब बैग में रखने के लिए ज्यों ही उठाई, उसके ऊपर रखे गए काग़ज़ पर उकेरे गए शब्दों की छाप मुझे दिखी ---- "प्रतिबिम्ब"।

मैंने तय कर लिया कि मैं वह यात्रा नहीं करना चाहती थी और इसकी ज़रूरत भी नहीं थी। बहुत से सवाल, बहुत से जवाब, और बहुत से द्वंद्व अकेले बस इसी तरह बाकी थे, पर अब मुझे पता था कि मैं क्या करना चाहती थी। सर्द हवा को सुकून से चेहरे पर महसूस करते हुए जब मैं एयरपोर्ट से बाहर निकली तो एक बार फ़िर पीछे मुड़कर देखा, ऐसा लगा जैसे वे मुझे देख सकती थीं। मुझे समझ ना आया कि वे महिला कौन थीं --- मेरी कल्पना, कोई सपना, सच या फ़िर मेरा प्रतिबिम्ब…

4 comments:

  1. अछा लगा पढ़ के की कुछ लोग अभी भी है इस दुनिया मे, चाहे विरले ही हो, जो ये समझते है की हमारे सवालो की जवाब हम ही मे कहीं छुपे है| बस ज़रूरत है तो सिर्फ़ इस चीज़ की, के हम तोड़ा साहस करे, उनको स्वीकार करने का| :) और हाँ, हिन्दी की बात सच मे कुछ और ही होती है! :D

    - रोहन

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    1. शुक्रिया रोहन! दरअसल हर चीज़ जो बाहर है वो अंदर पहले ही होती है. अच्छा लगा जानकर कि ये विचार जोड़ पाए सभी विचारों को. और सच मुच हिन्दी में लिखने का अलग ही सुकून है :)

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